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ਇੰਦਰਜੀਤ ਸਿੰਘ ਕਾਨਪੁਰ
अनमत की "होली" और सिक्खों का "होला महल्ला"
अनमत की "होली" और सिक्खों का "होला महल्ला"
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अनमत की "होली" और सिक्खों का "होला महल्ला"
हिन्दू भाईयो का त्योहार होली आ रहा है । इस त्योहार के बारे में यह मथिहास प्रचलित है कि इस दिन भगत प्रहलाद की बूआ , जिसका नाम होलिका था , भगत प्रहलाद को जान से मार देने के लिये अपनी गोदी में बिठा कर ,उसने अपने आप को आग लगा ली, क्यों कि होलिका को यह वर प्राप्त था कि उसको अग्नि जला नही सकती ।भगत प्रहलाद को जान से मारने की यह जुगत प्रहलाद के पिता हरणाकष्यप ने बनाई थी कि प्रहलाद अग्नि मे जल कर मर जायेगा और होलिका अपने वर के कारण बच जायेगी ।लेकिन हुआ इसका उलट ।होलिका जल गई और भगत प्रहलाद बच गए।तब से हिन्दू समाज में यह त्योहार मनाया जाता है ।
सिक्खों मे मनाये जाने वाले "होला महल्ला" से इस होली का कोई सम्बंध नही है क्योकि होला महल्ला मनाने का कारण और मकसद कुछ और है ,जिसके बारे में हम इस लेख मे उल्लेख करेंगे ।
सिक्खी में "होला" शब्द का अर्४थ है "हल्ला", युद्ध का शोर, कोलाहल , भगदड़ , । "महल्ला" शब्द का अर्थ है, छेत्र, मैदान , युद्ध का मैदान । अर्थात " होला महल्ला" ।आईये इस बारे सछिप्त जानकारी प्राप्त कर लेते हैं ।
सिक्खो के नवें गुरू , गुरू तेग बहादुर साहिब ने संवत १७२३ मे सतलुज नदी के किनारे साथोवाल गाँव की धरती पर, एक शहर बसाया, जिसका नाम "खालसे दी वासी" रक्खा । आगे जा के इसका नाम "आनन्दपुर साहिब" के नाम से प्रचलित हुआ, जो हुशियारपुर की तहसील ऊना में स्थित है ।
१७४६ मैं सिक्खों के दसवें गुरू , गुरू गोबिन्द सिँघ साहिब ने ,इस शहर की सुरक्छा की द्रष्टि से बहुत पुखता इन्तजाम किये और आन्दपुर साहिब को खालसा का घर होने के साथ साथ सिक्ख फौज की एक छावनी का रूप दे दिया ।
सैनिक छावनी होने के कारण गुरू साहिब ने आन्दपुर साहिब में पाँच किलों का निर्माण इस भाँति करवाया था कि इस शहर में दुशमन हमला तो क्या अँदर आने की हिम्मत भी नही कर सकता था। इन पाँच किलों का नाम गुरू साहिब ने इस प्रकार से रक्खा।
१- किला आनन्द गड़ (इस किले के नाम से ही गुरू साहब द्वारा बसाये इस शहर का नाम आगे चलकर
" आनन्दपुर साहिब" प्रचलित हुआ ।
२- किला लोह गड़ (इस किले मैं फौज का सामान, हथियार शस्त्र आदि का जखीरा महिफूज रक्खा जाता था ।
३- किला फतेह गड़ (इस किले मैं युद्ध से सँबन्धित नीतीयां और फैसले लिये जाते थे ।)
४- किला केश गड़ (इसी किले मे संवत १७५६ अर्थात १६९९ ई़ की वैसाखी वाले दिन गुरू गोबिन्द सिँघ साहिब ने सिक्खों को अमृत छका कर "खालसा" का एतिहासिक सर्जन किया था ।
५- किला होल गड़ (यही वह किला है, जिससे "होला महल्ला" का सम्बन्ध है। होल अर्थात युद्ध एवं गड़ का अर्थ स्थान । अर्थात युद्ध का स्थान अथवा मैदान ।
बहुत विस्तार में ना जाते हुये हम यहां बहुत ही सँछेप में होल + गड़ किले और उस से सम्बन्धित "होला महल्ला" पर्व के बारे में जिकर करेंगे ।
होलगड़ के इसी किले मे गुरू गोबिन्द सिँघ साहिब अपना दीवान लगाया करते थे ।गुरू वाणी कीर्तन उपरान्त देश विदेश से आए अगांतुको और महमानो की मुलाकातें भी इसी स्थान पर हुआ करती थीं । इसी किले के बहुत बड़े मैदान मैं सिक्ख सैनिक रण कौशल और शस्त्र विद्धया का अभियास किया करते थे , जिसका निरीछण गुरू साहिब स्वयं उपस्थित रह कर किया करते थे । उस समय के आधुनिक शस्त्र एवं हथियारों का परीछण भी इसी स्थान पर किया जाता था । सेना का मनोबल बड़ाने और सेनां को अधिक रण कौशल बनाने के लिये होला महल्ला वाले दिन एक बहुत बड़ा कानसर्ट या प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता था ।गुरू साहिब ने "होला महल्ला" नाम क इस उत्त्सव की शुरूआत बदी चेत्र संवत १७५७ में की थी । इस उत्सव मैं सेना के अलग अलग टीमें बना कर कर्तिम युदध करवाया जाता था । जो टीम विजयी धोषित की जाती थी , उस टीम को गुरू जी स्वयं सम्मानित करते थे । इस प्रकार सेना का मनोबल भी बड़ जाता और रण कुशलता का अभ्यास भी हो जाता ।
यह है सिक्खो के होला महल्ला उत्सव का इतिहास । सिक्खो के होला महल्ला उत्सव मे कही भी होलिका और प्रहलाद वाली कहानी का कोई सम्बन्ध नहीं है ।दूसरी ध्यान देने वाली बात यह है कि " होला महल्ला" का उत्सव चेत्र महीने मै मनाया जाता है, और होलिका का त्योहार फागुन माह में मनाया जाता है। बहुत से सिक्ख जो अपने इतिहास से वाकिफ नही हैं , होलिका के त्योहार को ही होला महल्ला कहने और मनाने लगते है ।होली रँगो का त्याहार है जो होलिका और प्रहलाद के मिथिहास पर अधारित है , जबकि सिक्खो का होला महल्ला के इतिहास का जिकर हम इस लेख में कर चुके हैं । होलिका पर्व जो फागुन माह मे मनाया जाता है और उसे फाग भी कहा जाता है , उस बारे तो गुरू ग्रँथ साहिब जी का स्पष्ट सँदेश है कि
एक सिक्ख का फाग अर्थात होली तो वह दिन है, जिस दिन वह अपने प्रभू (परमात्मां) से मिल कर उस की भक्ती रूपी रँग में रँग जाता है । मै तो साध सँगत की सेवा को ही होली खेलनां समझता हूँ । मैं उस प्रभू सँग मिल कर लाल रँग , भाव :
अच्छे भाग्यो वाले रँग में रँग गया हूँ ।
 आजु हमारै बने फाग ।। परभ सँगी मिल खेलन लाग ।।
 होली कीनी सँत सेव ।। रँग लागा अति लाल देव
।। अँक ११८० गुरू ग्रँथ साहिब ।
मेरे सिक्ख भाईयो ! अब फैसला आप को स्वयं करना है कि आपने अपने गुरू, गुरू के बनाये इतिहास अनुसार होला महल्ला मनाना है, और गुुरबाणी के बताये हुुकम अनुसार होली का मतलब समझना हैं याँ दूसरो की तरह कालिख , कीचड़ और गोबर और जहरीले रँग एक दूसरे पर फेंक कर होली मनानी है।मेरे हिसाब से तो अपने किसी भी त्योहार को मनाने का सभ से अच्छा तरीका यही होगा कि हम अपने बच्चों को अपने उस त्योहार के इतिहास से अवगत करवायें।कोई भी पर्व मनाया तब तक सफल नही हो सकता ,
जब तक उस पर्व को मनाये जाने का इतिहास एवं मकसद के बारे में हमे पता ना हो।
इन्दरजीत सिँध ,कानपुर
 

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